मेरा गाँव मेरा देश

Friday, September 25, 2015

इस बार हैंडलबार

कार्पोरेट दुनिया में भले ही क्लीन शेव रखने वाले लोग अधिक हों, लेकिन स्टाइल, मस्ती और रोमांच को पसंद करने वाले लोगों को हैंडलबार मूंछें आज भी लुभाती हैं। 

कॉलेज स्टूडेंट से लेकर जेंटलमैन, अभिनेता और लाइफस्टाइल में खुलेपन की वकालत करने वाले सभी लोगों के बीच हैंडलबार मूंछें एक बार फिर चलन में हैं। कार्पोरेट दुनिया में भले ही क्लीन शेव का बोलबाला है, लेकिन टशन और स्टाइल के लिए मुस्टैच लुक पसंद करने वाले युवाओं की संख्या आज भी कम नहीं है। ऐसे में अगर कोई आपसे कहे कि आपके चेहरे पर हैंडलबार जैसी मूंछें अच्छी नहीं लगती, तो वह सरासर गलत है। लंबे बालों के अलावा क्राप्ड हेयर के साथ घुमावदार या फिर प्वाइंटेड मूंछे कैरी करने वाले युवाओं की अच्छी खासी तादाद है।

जरा आईने के सामने खडे़ होकर चेहरे पर शौर्य और आत्मिवश्वास की प्रतीक अपनी मूंछों को नजर घुमाकर देखें, आप पाएंगे की हैंडलबार या घुमावदार मूंछें सभी चेहरों पर फबती हैं। 

राजस्थान समेत देश के दूसरे कई राज्यों और दूरदराज के इलाकों में तो आज भी हैंडलबार मूंछों को मर्दों की पहचान माना जाता है। राजा-रजवाड़ों से लेकर योद्धाओं और नवाबी ठाठ की पहचान रही हैं हैंडलबार मूंछें। भारत में 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अंग्रेज भी इसी तरह की मूंछें रखते थे, जिन्हें ताकत का पर्याय माना जाता था। मुगल सम्राट भी इसी तरह की मूंछे रखते थे।
सेलेब्रिटीज, फिल्मों और फैशन की दुनिया ने भी हैंडलबार के ट्रेंड को अपनाया है। फिल्मी हीरो से लेकर गायकों तक, फैशन गुरु से लेकर खिलाड़ियों तक सभी अपनी मूंछों को आकर्षक स्टाइल में रखने लगे हैं। क्रि केटर शिखर धवन और बॉलीवुड अभिनेता रणबीर सिंह भी हैंडलबार की तरह मूंछे रख चुके हैं। यही नहीं, हमेशा क्लीन शेव रहने वाले शाहरुख खान का मुस्टैच लुक भी सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोर चुका है। उन्होंनें इसके बारे में ट्वीट भी किया कि बैटरी खत्म हो गई थी, इसलिए मूंछें रह गई। फिल्म रामलीला में रणबीर सिंह की हैंडलबार मूंछों की खूब चर्चा रही थी।
  • आपको हैरानी होगी कि घुमावदार मूंछों का नाम साइकिल के हैंडलबार के नाम पर ही पड़ा था।
  • हैंडलबार जैसी मूंछें रखने वालों का एक क्लब भी है। इसका गठन 1947 में लंदन में हुआ था।
  • 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अंग्रेज भी इसी तरह की मूंछें रखते थे। 
  • फिल्मों और फैशन की दुनिया में भी है हैंडलबार का बोलबाला।
 वैसे अमेरिका में काओब्वॉज के जमाने से ही इस तरह की मूंछों का चलन जोरों पर था। 80 के दशक में आम जनता में भी इनका फैशन उस वक्त तेजी से बढ़ा, जब 'द विलेज पीपुल' बैंड के सदस्य और अभिनेता बर्ट रेनॉल्ड ने 'द कैननबॉल रन' फिल्मों में इस प्रकार की मूंछें रखी थी। उसके बाद टॉम सेलेक ने 'मैग्नम पी.आई.'  नामक टीवी धारावाहिकों में भी इसी तरह की मूंछें रखी थी।
आप भी इसी तरह की मूंछे रख सकते हैं। आपको बस इतना करना है कि आपको अपनी पसर्नैलिटी के मुताबिक मूंछों का चयन करें। आप हैंडलबार की तरह मूंछों को ऐंठकर आत्मविश्वास दिखा सकते हैं या इसे सम्मान के प्रतीक के रूप में भी धारण कर सकते हैं। हां, अगर आप भी मूंछों के शौकीन हैं, तो यह जानना जरूरी है कि इन मूंछों की देखभाल कैसे करें। आप भी झिझक छोड़ें और इस तरह की मूंछें रखें। ये खुद आपकी शख्सियत को बयां करेगी। शौर्य, मस्ती या स्टाइल दिखाने का मूंछों से बेहतर  कोई तरीका नहीं हो सकता।

Wednesday, March 7, 2012

तेरे बिन मौसम ये बेकार है

कल ऑफिस में होली पर एक विशेष पेज तैयार करना था, विचार किया गया की क्यों न होली के मौके पर चुनावी रंग से भीगी कुछ कविताएं चस्पा कर होली के जायके को बरकरार रखा जाये. कुछ मित्रों तुकबंदी की और कविताएं चाँद पलों में तैयार हो गई. कुछ पंक्तियों का ओपरेशन किया तो लगा कि यार कवि तो हम भी बन सकते हैं. वैसे भी आजकल कवि बनने का ट्रेंड सा चल पड़ा है. संक्रमण की आंधी कुछ ऐसी है कि कॉमर्स और साइंस पढने वाले बच्चे भी जब पत्रकारिता पढने कॉलेज जाते हैं, पत्रकारिता कि पढाई तो दूर कवि पहले बन जाते है. भई मौका होलिका हो और पूरे कुएं में ही भांग हो तो, कुछ तो असर पड़ेगा ही...सो हमने भी शाम मेट्रो में सफ़र करते हुए दे एक दे मारी.....
आप भी पढ़िए और कविता के कीड़े को प्रोत्साहित करने क़ी परम्परा के मुताबिक दाद भी दीजिये

फूल खिले हैं, भँवरे गाएं
रंगों भरी फुहार है.
लेकिन तेरे बिन लगता मौसम ये बेकार है

मोर, पपीहा कोयल कूके
वीणा क़ी झंकार है
तेरी मीठी बोली हो तो मिसरी भी बेकार है

चन्दन महके, कलियाँ चहकें
खुशबु भरी बयार है
लेकिन तेरे बिन तो ये गुलशन भी बेकार है

इधर गया मैं, उधर गया मैं
भीड़ भरा बाज़ार है
तू न हो तो लगती दुनिया ये बेकार है

रूठ न जाना, दूर न जाना
आंसुओं क़ी धार है
क्योंकि तेरे बिन लगता मौसम ये बेकार है

Monday, July 19, 2010

गांव जवार के मानसून जमघट में बरसे लोकगीत

अख़लाक़ अंसारी/मुजफ्फरपुर : सांस्कृतिक नीति 2004 को जमीन पर उतारने, बिहार में कलाकार नीति बनाने और सभी जिलों में कला प्रदर्शन के लिए आडिटोरियम व नगर भवन फ्री मुहैया कराने की मांग को लेकर लोक कलाकार 30 जुलाई को पटना में जमघट आयोजित करेंगे। इसमें सूबे के डेढ़ सौ कला संगठनों के प्रतिनिधि शिरकत करेंगे। यही नहीं सभी सियासी दलों के प्रतिनिधि भी आमंत्रित होंगे। इन दलों के समक्ष कलाकार इन मुद्दों को रखते हुए चुनाव घोषणा पत्रों में कला व कलाकारों के विकास बाबत दृष्टिकोण स्पष्ट करने की मांग करेंगे। यह फैसला रविवार को 'गांव जवार' और 'बेटी बचाओ आंदोलन' के मानसून जमघट में लिया गया।जिला स्कूल सभागार में गांव-गांव से पहुंचे कलाकारों ने रिमझिम फुहारों के बीच पारंपरिक लोकगीतों की प्रस्तुति से सबका मन मोह लिया। कजरी, झूमर, निर्गुण, लोकगीत, झूलन, गजल, भजन आदि पर शाम तक लोग झूमते रहे। कार्यक्रम की शुरुआत मंजूर खान ने गजल सुनाकर की। इसके बाद किरण देवी, मिश्री लाल, सुरेन्द्र पासवान, शैलेश यादव, अवधेश कुमार, संजय यादव, विरेन्द्र चौहान, संत रामाशीष दास, अनिता कुमारी, सुनील कुमार, अशोक कुमार, चंदन कुमार, इंदू बाला शर्मा, कामेश्वर मिश्र, सलोनी कुमारी, अशोक कुमार ओझा, विनय गिरी, अवधेश भंडारी आदि लोक गायकों ने प्रस्तुति दी। कार्यक्रम में विनोद कुमार ने जहां नाक से शहनाई बजाकर वाहवाही लूटी, वहीं फिल्म 'पिपली लाइव' की बाल कलाकार पारूल ने माइम प्रस्तुत कर सबको चकित कर दिया।इस दौरान नया थियेटर भोपाल के निर्देशक रामचंद्र सिंह, फिल्म अभिनेता विजय खरे, पटना से पहुंचे पत्रकार शशिकांत, बेटी बचाओ आंदोलन के संयोजक अरुण कुमार सिंह व सोशल वर्कर विष्णुकांत झा ने संगठित होकर लड़ाई तेज करने की अपील की। वक्ताओं ने कहा कि सूबे में कई कलाएं न सिर्फ दम तोड़ रही हैं, बल्कि उसे जिंदा रखने वाले गुमनामी में जी रहे हैं। उनके संरक्षण के लिए राज्य सरकार के पास कोई योजना नहीं है।

Tuesday, July 13, 2010

जिन्दगी बचाने की मुहिम

18 साल की अंजलि के सारे सपने टूट गये हैं। आज वह जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है। दरअसल अंजलि की दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं। डाW. राम मनोहर लोहिया अस्पताल ने किडनी के प्रत्यारोपण के लिए उसे जी. बी. पंत अस्पताल या अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्था (एम्स) में रेफर किया। लेकिन आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर होने के कारण अंजलि का परिवार उसका इलाज कराने में असमर्थ है। अंजलि के 62 साल के पिता त्रिलोक चंद्र एक दुर्घटना के बाद से काम नहीं कर पाते हैं। अंजलि के दो भाई भी थे लेकिन अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। एक भाई ब्लड कैंसर का तो दूसरा एक दुर्घटना का शिकार बन गया। अंजलि की दो बड़ी बहनें और एक छोटी बहन है। घर में कमाने वाली उसकी अकेली बहन निशा टूशन पढ़ाकर कर किसी तरह घर का गुजारा करती है। हमारी आपकी थोड़ी सी मदद एक जिन्दगी को बचा सकती है। अगर अंजलि को कोई किडनी दान कर दे या उसके इलाज का खर्च उठा ले तो उसकी जिन्दगी बच सकती है। एक-एक दिन मौत उसके करीब आती जा रही है। एक आम लड़की की तरह अंजलि के भी कई सपने हैं। जिन्दगी में कुछ करने का जज्बा भी है। लेकिन अब उसके सारे सपने हमारी आपकी मदद पर निर्भर हैं।
अंजलि की मदद के लिए यहां संपर्क करें।

निशा (अंजलि की बहन)
मकान नं। 6555, तोताराम बिल्डिंग,
कुतुब रोड, नई दिल्ली-११००५५
मोबाइल-9654854701
(नोट : यह सूचना एएनआई में कार्यरत संदीप द्विवेदी द्वारा भेजे गए इमेल के हवाले से प्रेषित की जा रही है।)

Monday, May 24, 2010

नंदीग्राम से वेदांत विश्वविद्यालय तक -सरकारी दमन की एक ही गाथा

डॉ कुलदीप चंद अग्निहोत्री
12 मई 2004 को मुम्बई में वर्ली में रहने वाले चार लोगों ने मिलकर भारतीय कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत स्टरलाईट फाउंडेशन का पंजीयन करवाया । इस धारा के अंतर्गत पंजीयन होने वाली कम्पनियां प्राइवेट होती हैं और उनका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं बल्कि जनसेवा करना होता है । फाउंडेशन का पंजीयन करानेवाले ये परोपकारी जीव द्वारकादास अग्रवाल का बेटा अनिल कुमार अग्रवाल और उनकी बेटी सुमन डडवानिया हैं । इनके इस फाउंडेशन में अनिल कुमार अग्रवाल के दादा लक्ष्मीनारायण अग्रवाल भी हैं । इस प्रकार अग्रवाल परिवार के 4 सदस्यों को स्टरलाईट फाउंडेशन प्रारम्भ हुआ । कम्पनी का पंजीयन करवाते समय यह बताना आवश्यक होता है कि कम्पनी में किसी भी प्रकार की उन्नीस -इक्कीस हो जाने की स्थिति में क्षति की भरपाई करने की किसकी कितनी जिम्मेदारी होगी । इन चारों महानुभावों ने घोषित किया कि प्रत्येक की जिम्मेदारी केवल 5 हजार रुपए तक की होगी । इसका अर्थ यह हुआ कि स्टरलाईट फाउंडेशन के संस्थापक सदस्यों ने केवल 20 हजार रुपए की जिम्मेदारी को स्वीकार किया । कुछ समय के बाद इस फाउंडेशन ने अपना नाम बदलकर नया नाम वेदांत फाउंडेशन रख दिया ।
अनिल अग्रवाल के इस वेदांत फाउंडेशन की गाथा शुरु करने से पहले इसके बारे में थोडा जान लेना लाभदायक रहेगा । अग्रवाल इंग्लैंड में वेदांत के नाम से एक कम्पनी चलाते हैं जो अनेक कारणों से काली सूची में दर्ज है । ओडिशा में अग्रवाल खदानों के धंधे से जुडे हुए हैं जिसको लेकर उन पर अनेक आरोप -प्रत्यारोप लगते रहते हैं । अग्रवाल ओडिशा में ही बॉक्साईट की खदानों से जुडे हुए हैं और उन पर खदान के कार्य में अनियमितता बरतने के कारण अनेक मुकदमे चल रहे हैं । अनिल अग्रवाल कैसे फकीरी से अमीरी में दाखिल हुए यह एक अलग गाथा है । अनिल अग्रवाल के वेदांता रिसोर्सेज का नवीन पटनायक से पुराना रिश्ता है अग्रवाल ओडिशा में वेदांत एल्युमिनियम प्रोजेक्ट चलाते हैं । अरबों रुपए की खदानों का मामला है और खदानों के इस मामले में कम्पनी कितना गडबड घोटाला कर रही है , ओडिशा के प्राकृतिक स्त्रोंतों को लूट रही है और नियम कानूनों की धज्यियां उडाकर अपना भंडार भर रही है इसका एक नमूना 2005 में उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित की गयी केन्द्रीय उच्च शक्ति कमेटी द्वारा न्यायालय को सौंपी गयी रपट से अपने आप स्पष्ट हो जाता है । किस प्रकार अनिल अग्रवाल की खदान कम्पनी ने राज्य सरकार की मिली भगत से झूठ बोला , तथ्यों एवं प्रमाणों को बदला और विशेषज्ञों और ओडिशा की जनता को जानबूझकर बुद्धू बनाने का प्रयास किया । कम्पनी अपनी गतिविधियों को छुपाना चाहती थी । सरकार इसमें सहायक हो रही थी । इस कमेटी ने सर्वाेच्च को संस्तुति की कि अग्रवाल के एल्युमिनियम रिफाईनरी प्रोजेक्ट को जिस प्रकार पर्यावरण सम्बंधी एवं वनक्षेत्र में कार्य करने की अनुमति मिली है उससे इस बात का संदेह गहराता है कि राज्य सरकार इसमें मिली हुई है । जनहितों एवं राष्टृहितों का ध्यान नहीं रखा गया । इसका अर्थ यह हुआ कि अनिल अग्रवाल और उनकी कम्पनियां ओडिशा में क्या कर रहीं हैं यह मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से छुपा हुआ नहीं था । लेकिन शायद नवीन पटनायक के हित ओडिशा के बजाय कहीं अन्यत्र रहते हैं ।
वेदांत फाउंडेशन ने अप्रैल 2006 में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को एक पत्र लिखकर यह सूचित किया कि फाउंडेशन पूरी , कोणार्क, मैरीना बीच के साथ एक विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाना चाहता है जिसका नाम वेदांत विश्वविद्यालय होगा । क्योंकि विश्वविद्यालय बहुत बडा होगा और बकौल अनिल अग्रवाल उसमें से नोबल पुरस्कार विजेता निकला करेंगे इसलिए , उसे इस पवित्र काम के लिए 10 हजार एकड जमीन की जरुरत होगी । शायद , अग्रवाल ने यह भी कहा होगा कि यह ओडीशा के लिए अत्यंत गौरव का विषय होगा । ओडिया न जानने वाले ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ओडिशा के गौरव की बात सुनकर चुप कैसे रह सकते थे । और फिर जब यह प्रस्ताव एक ही परिवार के दादा और पौत्र ने साथ मिलकर दिया हो तो उसकी अवहेलना कैसे की जा सकती थी । आजकल ऐसे संयुक्त परिवार बचे ही कितने हैं । यह अलग बात है नवीन पटनायक ने अग्रवाल परिवार से यह नहीं पूछा कि विश्वविद्यालय खोलने सेे पहले अपने कहीं कोई स्कूल -इस्कूल भी चलाया है या नहीं । खैर अग्रवाल के मित्र नवीन पटनायाक तुरंत सक्रिय हुए और पत्र मिलने के दो महीने के अंदर -अंदर उनके प्रिसीपल सेक्रेटरी ने 13 जुलाई को वेदांत विश्वविद्यालय खोलने के लिए फाईल चला दी । फाईल कितनी तेजी से दौडी होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके 5 दिन बाद ही 19 जुलाई का ओडिशा सरकार ने फाउंडेशन के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर कर दिए। । यह अलग बात है कि ओडिशा के लोकपाल ने बाद में अपने एक आदेश में इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि फाउंडेशन की ओर से किसने हस्ताक्षर किए , यह स्पष्ट नहीं है क्यांेकि हस्ताक्षर पढे ही नहीं जा रहे । साथ ही कि यह एमओयू अनिल अग्रवाल फाउंडेशन को किसी समझौते में भी नहीं बांधता । यानी सरकार फाउंडेशन के लिए सबकुछ करेगी लेकिन फाउंडेशन किसी बंधन में बंधा नहीं रहेगा । इसी बीच अनिल अग्रवाल ने वेदांत फाउंडेशन का नाम बदलकर उसका नया नाम अपने नाम पर ही रख लिया ।
अब सरकार को अनिल अग्रवाल या उनके फाउंडेशन के लिए 10 हजार एकड जमीन मुहैया करवानी थी , बहुत ज्यादा हो -हल्ला मचने के कारण अग्रवाल ने ओडिशा सरकार पर एक दया कि और वे लगभग 6 हजार 2 सौ एकड प्राप्त करने पर ही ओडिया गौरव को बचाने के लिए सहमत हो गए । अनिल अग्रवाल जानते है कि अपने इस नए शिक्षा उद्योग के लिए वे स्वयं भूमि नहीं खरीद सकते थे । किसान अपनी भूमि बेच या न बेचे यह उस पर निर्भर है । वैसे भी यदि किसान अपनी कृषि योग्य जमीन बेच देगा तो भूखों नहीं मरेगा तो और क्या करेगा । दूसरे अग्रवाल यह भूमि खुले बाजार मंे खरीदते तो निश्चय ही कीमत कहीं ज्यादा देनी पडती । इसके बावजूद भी एकसाथ लगभग 6-7हजार एकड भूमि मिल पाना भी सम्भव नहीं है । तब एक ही रास्ता बचता था कि नवीन पटनायक इस भूमि का अधिग्रहण करने के बाद यह भूमि अपने मित्र अनिल अग्रवाल को इस शिक्षा उद्योग के लिए सौंप दें । इससे , एक तो भूमि की ही ज्यादा सस्ती कीमतें मिल जाती दूसरे भूमि अधिग्रहण के झंझट का सरकार को ही सामना करना पडता । इसलिए , अनिल अग्रवाल फाउंडेशन ने प्रस्ताव तो विश्वविद्यालय का रखा लेकिन उसका अर्थ पूरी कोणार्क मार्ग पर एक बहुत बडा नया प्राईवेट शहर बसाना है जिसकी मिल्कीयत अग्रवालों के पास रहती । विश्वविद्यालय का नाम देने से एक और सुभीता भी है ।इस नए शहर के लिए शिक्षा के नाम पर सारी आधारभूत संरचना ओडिशा सरकार ही उपलब्ध करवा देगी । प्रस्तावित नया शहर अनिल अग्रवाल का होगा और उसे बसाने का खर्चा सरकार उठाएगी । जो भूमि अधिग्रहित की जा रही है उसमें साल मे ंतीन मौसम मंे खेती होती है । वह अत्यंत उपजाउ जमीन है । भूमि के अधिग्रहण से लगभग 50 हजार लोग उजड जाएंगे । उनके बसाने की सरकार के पास कोई योजना नहीं है । सरकार समझती है कि किसान को उसकी भूमि का मुआवजा भर देने से कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है । एक व्यवसायी तो मुआवजे के पैसे नए स्थान पर अपना व्यवसाय शुरु कर सकता है लेकिन खेती करने वाला किसान जल्दी ही हाथ ही आए पैसे को गैर उत्पादक कामों में लगाकर भूखे मरने लगता है । किसान को जमीन के बदले जमीन चाहिए । लेकिन इस पर ओडिशा सरकार मौन है । उसे अनिल अग्रवाल के प्राईवेट विश्वविद्यालय को स्थापित कर देने की चिंता है । उसके लिए वह शदियांे से स्थापित किसानों को विस्थापित करने में भी नहीं झिझक रही ।
अनिल अग्रवाल इसको विश्वविद्यालय कहते हैं उनका कहना है कि इस विश्वविद्यालय में प्रत्येक वर्ष एक लाख छात्र भर्ती किए जाएंगे । विश्वविद्यालय के कोर्स आमतौर पर एक साल से लेकर 5 साल के बीच के होते हैं इस हिसाब से किसी भी समय छात्रांें की संख्या 3 से 4 लाख के बीच रहेगी ही । इन छात्रों को पढाने के लिए 20 हजार प्राध्यापक रखे जाएंगे और लगभग इतने ही गैर शिक्षक कर्मचारी । इसका अर्थ यह हुआ कि विश्वविद्यालय के नाम से चलाए जाने वाले इस नए शहर में लगभग 5 लाख की जनसंख्या होगी । नवीन पटनायक भी पढे लिखे प्राणी है और देश विदेश में भी घूमते रहते है । इतना तो वे भी जानते होंगे कि 5 लाख की जनसंख्या वाले स्थान शहर कहलाते हैं विश्वविद्यालय नहीं । अनिल अग्रवाल के अनुसार उनके इस नए विश्वविद्यालयी शहर को प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी चाहिए , 600 मेगावाट बिजली चाहिए , भुवनेश्वर हवाई अड्डे से लेकर इस नए शहर तक 4 लेन राष्ट्रीय राजमार्ग चाहिए और उनका यह भी कहना है िकइस राजमार्ग पर उनका संयुक्त स्वामित्व होगा । जमीन खरीदने पर लगने वाली स्टैम्प डयूटी और खरीद फरोख्त पर लगने वाले सभी प्रकार के टैक्सों से मुक्ती चाहिए और विश्वविद्यालय परिषर से 5 किलोमीटर की परिधि के भीतर किसी प्रकार का निर्माण कार्य प्रतिबंधित होना चाहिए । इस परिधि में लगभग 117 गांव और पूरी शहर आ जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन गांवों के लोगों की सम्पत्ति उनकी अपनी होते हुए भी अपनी नहीं रहेगी क्योंकि वे उस पर अपनी इच्छा से या अपनी जरुरत के मुताबिक किसी प्रकार का निर्माण कार्य नहीं करवा सकेंगे । यह लगभग इसी प्रकार की शर्तें है जैसी शर्तें कोई विजेता पार्टी पराजित पार्टी पर थोपती हैं ।
ओडिशा सरकार ने अनिल अग्रवाल की इस महत्वकांक्षी योजना को पूरा करने के लिए एमओयू हस्ताक्षरित हो जाने के एक मास के अंदर ही एक उच्चस्तरीय कोर कमेटी का गठन कर दिया जिसने 1 साल के भीतर ही 6 बैठकें करके भूमि अधिग्रहण का कार्य चालू कर दिया । अनिल अग्रवाल फाउंडेशन की नीयत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कोर कमेटी की बैठक में जब यह आपत्ति उठायी गयी कि कम्पनी अधिनियम की धारा 25 के अंतर्गत रजिस्टर्ड प्राईवेट कम्पनी के लिए राज्य सरकार किसानों की भूमि का अधिग्रहण नही ंकर सकती तो फाउंडेशन के प्रतिनिधि ने कोर कमेटी को यह गलत सूचना दे दी कि कम्पनी का स्टेटस बदल गया है और अब वह पब्लिक कम्पनी में परिवर्तित हो गयी है और आश्चर्य इस बात का है कि कोर कमेटी ने भी आंखें बंदकर उनकी इस सूचना को स्वीकार कर लिया । न तो इसके लिए कोई प्रमाण मांगा गया और न ही दिए गए प्रमाण की जांच की गयी । ताज्जुब तो इस बात का है कि इस तथाकथित विश्वविद्यालय के लिए अधिग्रहित की गयी भूमि में 1361 एकड जमीन भगवान जगन्नाथ मंदिर की भी है जिसे मंदिर अधिनियम के अंतर्गत किसी और को नहीं दिया जा सकता । हो सकता है नवीन पटनायक की भगवान जगन्नाथ में आस्था न हो लेकिन ओडिशा के करोडों लोग जगन्नाथ में आस्था रखते हैं । ओडिशा की संस्कृति जगन्नाथ की संस्कृति के नाम से ही जानी जाती है । जगन्नाथ की भूमि व्यवसायिक हितों के लिए देकर पटनायक ओडिशा की अस्मिता पर ही आधात कर रहे हैं । मुगल काल में और ब्रिटिश काल में मंदिरों के भूमि हडपने के सरकारी प्रयास होते रहते थे ।पटनायक ने ओडिशा में आज भी उसी परम्परा को जीवित रखा और जगन्नाथ मंदिर की आधारभूत अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया ।
परन्तु इन तमान विरोधों के बावजूद जुलाई 2009 में ओडिशा विधाानसभा ने वेदांत विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर दिया । इस बिल की सबसे हास्यास्पद बात यह है कि 5 लाख 40 हजार करोड रुपए से स्थापित होने वाले इस शिक्षा उद्योग के मालिकों से केवल 10 करोड रुपए की प्रतिभूति रखने के लिए कहा गया है । सरकार का कहना है कि यदि विश्वविद्यालय के मालिक सरकारी नियमांे को पालन नहीं करेंगे तो उनकी यह 10 करोड रुपए की जमानत राशि जब्त कर ली जाएगी । यह प्रत्यक्ष रुप से सरकार ने अग्रवाल फाउंडेशन को खुली छूट दे दी है िकवे नियमों को माने या न माने उन्हों डरने की जरुरत नहीं है । अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय की 16 सदस्यों की प्रबंध समिति में 5 लोग सरकार के होंगे । दो विधानसभा के प्रतिनिधि और तीन राज्य सरकार के । इन पांचों में से भी फाउंडेशन अपनी इच्छा के लोग नियुक्त नहीं करवा लेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है । जब फाउंडेशन ने सरकार की उच्चस्तरीय कोर कमेटी से वह सब कुछ नियमविरुद्ध करवा लिया जिसके लिए राज्य के लोकपाल ने सरकार को फटकार लगायी , तो इन 5 मे से कितने फाउंडेशन के पाल के ही नहीं होंगे -कौन कह सकता है ।
इस तथाकथित वेदांत विश्वविद्यालय के खिलाफ ओडीसा में ही 16 मामले न्यायालय में लंबित है लेकिन सरकार इससे किसी प्रकार से भी पूरा करने का हठ किए हुए है ।नवीन पटनायक सरकार के इस पूरे प्रकल्प मेंशुरु से ही मिलीभगत रही है यह तो ओडिशा के लोकपाल के आदेश से ही स्पष्ट हो गया था । जो उन्होंने 17 मार्च 2010 को पारित किया था जिसमें इस सारे मामले की जांच करवाए जाने का आदेश दिया था । लेकिन फाउंडेशन की गतिविधियों और उसकी नीयत का अंदाजा एक और घटना से भी लगता है । 16 अप्रैल 2010 को केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने फाउंडेशन को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किया लेकिन उसके एक मास के भीतर ही पर्यावरण मंत्रालय ने इस प्रकल्प को दिए गए अनापत्ति प्रमाण पत्र पर रोक लगाकर एक बार फिर फाउंडेशन व नवीन पटनायक को कटघरे में खडा कर दिया है । मंत्रालय ने कहा है -फाउंडेशन द्वारा की गयी अनियमितताओं , गैर कानूनी , अनैतिक एवं विधिविरुद्ध कृत्यों के आरोपों के चलते अनापत्ति प्रमाणपत्र पर रोक लगा दी गयी है ।’ अनिल अग्रवाल ,उनके फाउंडेशन और उनके इस प्रस्तावित तथाकथित विश्वविद्यालय को लेकर नवीन पटनायक इतनी जल्दी में क्यों है ?
अनिल अग्रवाल के इस प्रकल्प का एक और चिंताजनक पहलू है । कहा जाता है कि इसमें इंग्लैंड के चर्च का भी पैसा लगा हुआ है । ओडिशा मतंातरण के मामले में काफी संवेदनशील क्षेत्र रहा है । विदेशी मशीनरियां यहां सर्वाधिक सक्रिय हैं और विदेशों से अकूत धनराशि इन मिशनरियों के पास मतांतरण के कार्य के लिए आती रहती है । यहां तक कि पिछले दिनों चर्च ने मतांतरण का विरोध करने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या तक करवा दी थी , जिससे राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में दंगे भडक उठे थे ।इंग्लैंड का चर्च आखिर इस प्रकल्प में किन स्वार्थो के कारण निवेश कर रहा है । ऐसा भी सुनने में आया है कि चर्च ने किन्हीं मतभेदांे के चलते अब इस प्रकल्प से अपना हाथ खीच लिया है । अनिल अग्रवाल फाउंडेशयन और चर्च के इन आपसी सम्बंधों की भी गहरी जांच होनी चाहिए ।
अनिल अग्रवाल का ओडिशा में एक बडा खदान साम्राज्य है उसी का विस्तार इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के माध्यम से होने जा रहा है । जिस जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है उसमें यूरेनियम और अन्य बहुमूल्य धातुओं के होने की बात कही जा रही है । विश्वविद्यालय के नाम से जैसा कि अग्रवाल ने स्वयं कहा है वे एक हजार बिस्तरों का अस्पताल बनवाएंगे । जाहिर है कि यह अस्पताल प्राईवेट क्षेत्रों में चल रहे अपोलो और एस्कार्ट अस्पतालों के तर्ज पर ही होगा लेकिन अनेक प्रकार की सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए इस पर स्टीकर विश्वविद्यालय का लगा दिया जाएगा । विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस के नाम पर पांच सितारा होटल बन सकते हैं और विद्यार्थियों को जरुरी चीजें मुहैया कराने के नाम पर विश्वविद्यालय में मॉल खोले जा सकते हैं । जैसा कि ओडिशा की एक सामाजिक कार्यकर्ता डॉ.जतिन मोहंती ने कहा है कि इस नए शहर में जिसकी जनसंख्या 5 लाख के आस पास होगी प्रतिदिन 11 करोड लीटर पानी की क्या जरुरत है । यदि एक व्यक्ति एक दिन में 80 लीटर पानी का भी प्रयोग भी करता है तो यह पानी 14 लाख लोगों के काम आ सकता है । मोहंती कहते है जाहिर है यह पानी विश्वविद्यालय के नाम पर बनने वाले आलीशान होटलों , आरामगाहों और विश्वविद्यालय द्वारा खेलों के विकास के नाम पर बनाए जाने वाले गोल्फकोर्सो के लिए प्रयोग किया जाएगा। ’’ विश्वविद्यालय पर सरकार का तो कोई नियंत्रण होगा नहीं । मनमानी फीस वसूलकर लूट खसूट का बाजार गरम होगा और जाहिर है ऐसे विश्वविद्यालय में ओडिशा के आम आदमी का बच्चा तो झांक भी नही ंसकेगा ।
वैश्वीकरण के इस दौर में पश्चिमी बंगाल सरकार ने टाटा काउद्योग स्थापित करने के लिए नंदीगा्रम के किसानों पर गोलियां चलवाई और ओडिशा में विश्वविद्यालय के नाम पर अनिल अग्रवाल का खदान साम्राज्य स्थापित करने के लिए राज्य सरकार हजारों हजार किसानों को बेघर करने पर तुली हुई है और राज्य के प्राकृतिक स्त्रोतों को लूट के लिए प्राईवेट हाथों मेें सौंप रही है । निश्चय ही इस लूट में कुछ हिस्सा उनका भी होगा ही जो निर्णय लेेने की क्षमता रखते हैं । अभी तक तो यही लगता है कि जब अनिल अग्रवाल और ओडिशा की आमजनता के बीच अपने -अपने हितों को लेकर टकराव होगा तो राज्य सरकार अनिल अग्रवाल फाउंडेशन के साथ खडी दिखाई देगी। लेकिन लोकतंत्र में आखिर लोकलाज भी कोई चीज होती है इसलिए , सरकार ने ढाल के तौर पर वेदांत विश्वविद्यालय को आगे किया हुआ है ।
(यह लेख डॉ कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री के हवाले से समन्वय नन्द ने भुवनेश्वर से प्रेषित किया है.)

Sunday, May 2, 2010

WORLD PRESS FREEDOM DAY

3 May 2010

Message of UN Secretary-General Ban Ki-moon


Freedom of expression is a fundamental human right, enshrined in Article 19 of the Universal Declaration of Human Rights. But around the world, there are governments and those wielding power who find many ways to obstruct it.

They impose high taxes on newsprint, making newspapers so expensive that people can’t afford to buy them. Independent radio and TV stations are forced off the air if they criticize Government policy. The censors are also active in cyberspace, restricting the use of the Internet and new media.

Some journalists risk intimidation, detention and even their lives, simply for exercising their right to seek, receive and impart information and ideas, through any media, and regardless of frontiers.

Last year, UNESCO condemned the killing of 77 journalists. These were not high-profile war correspondents, killed in the heat of battle. Most of them worked for small, local publications in peacetime. They were killed for attempting to expose wrongdoing or corruption.

I condemn these murders and insist that the perpetrators are brought to justice. All Governments have a duty to protect those who work in the media. This protection must include investigating and prosecuting those who commit crimes against journalists.

Impunity gives the green light to criminals and murderers, and empowers those who have something to hide. Over the long term, it has a corrosive and corrupting effect on society as a whole.

This year’s theme is Freedom of Information: the right to know. I welcome the global trend towards new laws which recognize the universal right to publicly held information.

Unfortunately, these new laws do not always translate into action. Requests for official information are often refused, or delayed, sometimes for years. At times, poor information management is to blame. But all too often, this happens because of a culture of secrecy and a lack of accountability.

We must work to change attitudes and to raise awareness. People have a right to information that affects their lives, and states have a duty to provide this information. Such transparency is essential to good government.

The United Nations stands with persecuted journalists and media professionals everywhere. Today, as every day, I call on Governments, civil society and people around the world to recognize the important work of the media, and to stand up for freedom of information.

Wednesday, August 12, 2009

मानवाधिकार और ख़बर का कमोडिफिकेशन

उमाशंकर मिश्र/दिल्ली
हाल ही में एक प्रतिष्ठत हिन्दी दैनिक में जालंधर से एक ख़बर आई, जिसमें पुलिस द्वारा मीडिया वालों से आरोपियों के साथ फोटो खिंचवा कर वाहवाही लूटने की बात कही गई थी। आखिरकार पुलिस को अपनी इस हरकत के लिए लताड़ खानी पड़ गई। हुआ यों कि कुछेक बरी आरोपियों ने हाईकोर्ट में राज्य पुलिस के खिलाफ याचिका दायर कर दी कि जब उन्हें पकड़ा गया तो उनकी तस्वीरें जमीन में बैठाकर खिंचवाई गई, जिससे उनके मान सम्मान को ठेस पहुंची है। पीड़ितों ने इस बात की शिकायत मानवधिकार आयोग में भी कर दी। आयोग ने इस पर संज्ञान लिया और अंतत: डीजीपी पी.एस. गिल ने प्रदेश के सभी एएसपी को आदेश जारी कर दिये कि आरोपी के साथ फोटो खिंचवाने वाले अधिकारियों की खै़र नहीं होगी।
बहरहाल इन सब में जो मजेदार बात छन कर आ रही है, वो यह कि मानवाधिकार आयोग के सख्त रवैये से दागी पुलिस कर्मचारियों और मीडिया से जुड़े कुछ दलाल टाईप के लोगों की मनमानी पर लगाम लग जायेगी। कई बार पुलिस प्रभावाशाली लोगों को गिरफ्तार तो कर लेती है, लेकिन ऐसे लोगों को एक्सपोज कर वाहवाही बटोरने काजोिख़म उठाने से वे डरते हैं। जबकि छोटे-मोटे केस में पकड़े गए व्यक्ति को मीडिया द्वारा प्रचारित किए जाने से सामाजिक तिरस्कार का डर दिखाकर वसूली कर ली जाती है। ख़बर में यह साफ तौर पर बताया गया है कि-`राज्य स्तर पर की गई समीक्षा में यह बात सामने आई है कि मीडिया से जुड़े कुछ दलाल टाईप लोगों की दागी पुलिस कर्मचारियों से सैटिंग रहती है। इसकी आड़ में पुलिस कर्मचारी जेबें भरने से गुरेज नहीं करते।
एक व्यक्ति जो किसी मामले में महज एक आरोपी है और जिसका दोष अभी न्यायालय में सिद्ध नहीं हुआ हो, उसे पुलिस (जो की एक स्टेट मशीनरी है) द्वारा झूठी प्रशंसा बटोरने और वसूली के फेर में मीडिया के माध्यम से समाज के सामने एक्सपोज कर देना क्या सही हैर्षोर्षो यदि कोर्ट में वह व्यक्ति निर्दोष साबित हो भी जाये तो उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं आत्मसम्मान क्या धूल-धुसरित होने से बचा रह पायेगार्षोर्षो यह तो मामले का एकमात्र पहलू है, जो पुलिस की भूमिका से जुड़ा है। दूसरी भूमिका इस तरह के मामलों में मीडिया की होती है। क्या कवरेज करने वाले पत्रकार एवं फोटो पत्रकार को यह नहीं मालूम होना चाहिए कि जिस ख़बर अथवा दृश्य के लिए कच्ची सामग्री वह एकत्रित कर रहा है वह आचार संहिता के दायरे में है अथवा नहीं। कहीं इस ख़बर अथवा दृश्य के प्रकाशित होने से संबंधित व्यक्ति के अधिकार प्रभावित तो नहीं होंगे! आधुनिक मीडिया युग में ख़बर के कमोडिटी बन जाने का यह एक ज्वलंत उदाहरण है, जिसमें मीडियाकर्मी यह नहीं सोचना चाहता कि यह ख़बर है भी या नहीं, उसे तो बस कुछ न कुछ चाहिए जिससे कि ख़बर के नाम पर संपादक को कुछ दिया सके और साथ में उसके अपने स्वार्थ भी उस ख़बर से सध जायें।
बहरहाल ख़बर अथवा चित्र संपादकीय कार्यालय में देने के बाद रिपोर्टर की जिम्मेदारी समाप्त होती है और संपादक की जिम्मेदारी शुरु हो जाती है। ख़बर, फोटो के औचित्य, प्रभाव, कुप्रभाव और निहितार्थों का आकलन करते हुए प्रकाशन संबंधी निर्णय समचार संपादक अथवा फोटो संपादक को लेना होता है। दोष सिद्ध हुए बिना गिरफ्तार आरोपियों के साथ चित्र प्रकाशित होने से पुलिस वालों ने भले ही झूठी वाहवाही बटोर ली हो, लेकिन मीडिया की ऐसे में भद्र पिट जाती है, जिसका आभास न तो संपादक को और न ही रिपोर्टर को होता है। इस पूरी कवायद के बीच बेचारा निर्दोष आरोपी सामाजिक तिरस्कार का पात्र बन जाता है। उल्लेखनीय है कि उस व्यक्ति को इस तरह के तिरस्कार का सामना जनसरोकारों एवं लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता की रिपोर्टिंग के कारण झेलना पड़ता है। इस तरह से व्यक्ति के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को उपहास का पात्र बनाकर क्या मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा हैर्षोर्षो दिल्ली के एक स्कूल की अध्यापिका उमा खुराना का स्टिंग कर एक न्यूज चैनल ने इसी तरह की परिस्थिति उत्पन्न कर दी थी। बाद में आधारविहीन रिपोर्टिंग के लिए न्यायालय ने चैनल को कुछ समय तक प्रतिबंधित कर दिया है। आज फिर वह चैनल न्यूज मािर्कट में जनता का रहनुमा बनकर असामाजिक सांड की तरह विचरण कर रहा है। लेकिन उसके कृत्य ने उमा खुराना नाम की अध्यापिका को कहीं का नहीं छोड़ा। भरे बाजार में उमा खुराना को लोगों ने बर्बरता से पीटा ही नहीं बल्कि उसके कपड़े तार तार कर दिये। क्या यह एक मानव जो महिला भी है, उसके अधिकारों का हनन नहीं हैर्षोर्षो मीडिया के ऐसे कृत्यों से आिख़र उससे क्या आशा की जा सकती है। क्या कुछ समय के लिए चैनल पर प्रतिबंध लगा देने से उस अध्यापिका की प्रतिष्ठा एवं आत्मसम्मान वापस लौट पायेगार्षोर्षो लेकिन इस पूरे मामले पर चैनल ने तात्कालिक तौर पर खूब टीआरपी बटोरी।
उपयुक्Zत मामले में जहां तक पुलिस की बात है, उसे तो राज्य की मशीनरी के तौर पर देखा जाता है। मानवाधिकार की डिक्शनरी में राज्य को कभी कल्याणकारी माना ही नहीं गया, बल्कि उसे तो मानवाधिकारों के सबसे बड़े शोषक के तौर पर देखा जाता है। क्योंकि पुलिस एवं प्रशासन उसी मशीनरी का हिस्सा हैं, इसलिए मानवाधिकारवादियों के नज़रिये से ठीक यही बात उन पर भी लागू होती है। जबकि राज्य को कल्याणकारी मान भर लेने से मानवाधिकार की संकल्पना ख़तरे में पड़ सकती है। बहरहाल यहां गौर करने वाली बात यह है कि जब मीडिया को पुलिस की झूठी वाहवाही को बटोरने की कवायद का पर्दाफाश करते हुए उन कथित आरोपियों के मानवाधिकार और उनके आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए ख़बर प्रसारित करनी चाहिए थी, वहां मीडिया पुलिस वालों की दलाली में लग गया और पुलिसकर्मियों को आरोपियों से वसूली करने की बात को दबा लिया गया। इस तरह से देखा जाये तो मीडिया और स्टेट मिलकर उन आरोपियों के मानवाधिकारों का हनन करते हैं। जिस पर अंतत: मानवाधिकार आयोग को हस्तक्षेप करना पड़ जाता है। कथित तौर पर वॉचडाग की भूमिका निभाने वाले मीडिया से आखिर हम किस तरह की आशा कर सकते हैं।